शिला माता मंदिर, आमेर: इतिहास, मान्यताएँ और दर्शन का समय
(Shila Mata Mandir Jaipur) कहा जाता है कि सन 1604 में जब शिला माता स्वयं जयपुर के तत्कालीन महाराजा मान सिंह के स्वप्न में प्रकट हुईं, तब राजा ने इसे ईश्वरीय संकेत माना। महाराजा मान सिंह स्वयं जेस्सोर (जो वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित है) गए और वहाँ समुद्र से शिला माता की मूर्ति प्राप्त कर, उसे आमेर के किले में स्थापित किया। तब से लेकर आज तक, लगभग 400 वर्षों से शिला माता अपने भक्तों की मनोकामनाएँ पूरी करती आ रही हैं।
मान्यता है कि यदि आप सच्चे मन से प्रार्थना करें, तो शिला माता आपकी हर इच्छा पूर्ण करती हैं — पर इसके लिए आपको स्वयं आना होगा जयपुर के आमेर में स्थित इस दिव्य मंदिर में। आइए, जानते हैं शिला माता मंदिर के इतिहास, मान्यताओं और चमत्कारों के बारे में विस्तार से।
शिला माता मंदिर का इतिहास (Shila Devi Temple History in Hindi)
मंदिर के इतिहास की एक कहानी हमने शुरू में समझी, लेकिन एक कहानी और है| मुगल सम्राट अकबर के दरबार में नौ रत्नों में से एक और एक श्रेष्ठ सेनापति के रूप में प्रसिद्ध राजा मानसिंह प्रथम को 1580 ईस्वी में बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया। उस समय बंगाल के शासक राजा केदर (Kedar of Jessore, वर्तमान बांग्लादेश) के विरुद्ध उन्हें एक कठिन युद्ध में जाना पड़ा। पराजयों से विचलित राजा मानसिंह को उनके दरबार के एक उच्च ज्योतिषाचार्य ने देवी काली की आराधना का सुझाव दिया और कहा कि माँ की कृपा से उन्हें कभी पराजय नहीं मिलेगी।
समुद्र में तैरती शिला और दिव्य संकेत
बंगाल में युद्ध के दौरान राजा मानसिंह को समुद्र किनारे एक अद्भुत घटना का साक्षात्कार हुआ। उन्होंने एक काले रंग की शिला (पत्थर) को समुद्र की लहरों पर तैरते देखा। यह दृश्य उन्हें ईश्वरीय संकेत प्रतीत हुआ। उन्होंने इस शिला को अपने साथ आमेर लाने का निर्णय लिया और उसमें माँ काली की मूर्ति खुदवाई। क्योंकि वह शिला देवी का माध्यम बनी, इसलिए देवी को ‘शिला माता’ नाम दिया गया।
विजय के साथ लौटी शक्ति की प्रतिमा
बंगाल पर विजय प्राप्त करने के पश्चात राजा मानसिंह जब आमेर लौटे, तो वर्ष 1590 ईस्वी के आसपास उन्होंने आमेर दुर्ग के भीतर एक भव्य Shila devi mandir का निर्माण करवाया। इस मंदिर में उसी शिला से निर्मित माँ काली की प्रतिमा की विधिवत स्थापना की गई। तभी से यह मंदिर आमेर के कछवाहा राजवंश की कुलदेवी का पावन निवास बन गया।
80 से अधिक युद्धों में प्राप्त हुई विजय का रहस्य
कहा जाता है कि राजा मानसिंह ने शिला माता की कृपा से 80 से अधिक युद्धों में विजय प्राप्त की थी। उनके जीवन में शिला माता केवल शक्ति की देवी नहीं, बल्कि प्रेरणा और संरक्षण की प्रतीक थीं। जयपुर के राजवंश ने भी माँ को ही अपने राज्य का वास्तविक शासक माना और स्वयं को उनकी सेवा में समर्पित किया।
शिला माता मंदिर की विशेषता
शिला माता की मूर्ति काले रंग की है, जो देवी के उग्र रूप को दर्शाती है। यह मूर्ति दक्षिणाभिमुख (south-facing) है, जो तांत्रिक दृष्टि से अत्यंत प्रभावशाली और दुर्लभ मानी जाती है। मंदिर के गर्भगृह में विशेष पूजा केवल राजपरिवार और विशिष्ट पुजारियों द्वारा ही की जाती है। नवरात्रि जैसे पर्वों पर यहाँ भक्तों की विशाल भीड़ उमड़ती है और विशेष अनुष्ठानों का आयोजन होता है।
जयपुर की एक कहावत में बसती देवी की प्रतिष्ठा
राजस्थान में एक प्रसिद्ध कहावत है –
“सांगानेर को सांगो बाबो, जयपुर को हनुमान, और आमेर की शिला देवी को लायो राजा मान”।
यह कहावत स्पष्ट रूप से इस बात को दर्शाती है कि शिला माता को आमेर और जयपुर के इतिहास में कितना सम्मान और महत्त्व प्राप्त है।
वर्तमान समय में भी, आमेर का यह मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव है। जो भी यहाँ आता है, वह देवी की शक्ति और कृपा को महसूस किए बिना नहीं लौटता। शिला माता केवल एक मूर्ति नहीं, बल्कि वह ऊर्जा हैं जिसने इतिहास को बदला, राजवंशों को दिशा दी और आज भी आस्था की लौ जलाए रखी है।
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शिला माता मंदिर की वास्तुकला
आमेर के ऐतिहासिक किले में स्थित shila mata temple, jaipur सिर्फ एक पूजा स्थल नहीं, बल्कि राजसी भव्यता, धार्मिक आस्था और तांत्रिक परंपराओं का अद्वितीय संगम है। यह मंदिर आज जिस स्वरूप में दिखाई देता है, उसका पुनर्निर्माण सन् 1906 में राजा मानसिंह द्वितीय ने करवाया था। पूर्णतः संगमरमर से निर्मित यह मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से जितना भव्य है, उतना ही आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण भी।
मंदिर की प्रतिमा – माँ का महिषासुरमर्दिनी रूप
मंदिर के गर्भगृह में विराजित शिला माता की प्रतिमा काले पत्थर की बनी हुई है और वह एक शिला (बोल्डर) पर स्थापित है। देवी का यह रूप महिषासुरमर्दिनी का प्रतीक है — जिसमें माँ अपने दाहिने पैर से महिषासुर को दबाकर, दाहिने हाथ में त्रिशूल से उसका वध कर रही हैं। इस कारण माँ की गर्दन दाहिनी ओर झुकी हुई दिखाई देती है।
मूर्ति हमेशा वस्त्रों और लाल गुलाबों से ढकी रहती है — केवल चेहरा और हाथ ही दर्शनार्थ खुले होते हैं। देवी के दाहिने हाथों में खड्ग, चक्र, त्रिशूल और बाण, जबकि बाएं हाथों में ढाल, अभयमुद्रा, मुण्ड और धनुष अंकित हैं। यह स्वरूप शक्ति, संरक्षण और विजय का दिव्य संकेत देता है।
मूर्ति के ऊपर देवताओं की संगति
शिला माता की मूर्ति के ठीक ऊपर, एक श्रृंखला में छोटे आकार की सुंदर मूर्तियाँ उकेरी गई हैं, जिनमें भगवान गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु और कार्तिकेय अपने-अपने वाहन पर सवार दिखाई देते हैं। यह प्रतीक है कि देवी केवल शक्ति नहीं, बल्कि सभी देवों की अधिष्ठात्री हैं।
कुलदेवियों की उपस्थिति – हिंगलाज और हिंगला
देवी के बाईं ओर अष्टधातु से निर्मित हिंगलाज माता की मूर्ति भी स्थापित है, जो कछवाहा राजवंश की कुलदेवी मानी जाती हैं। साथ ही मीणा समुदाय की कुलदेवी हिंगला माता की प्रतिमा भी मंदिर में प्रतिष्ठित है, जो यह संकेत देती है कि शिला माता का यह धाम कई परंपराओं और समुदायों को समाहित करता है। उल्लेखनीय है कि कछवाहाओं से पहले इस क्षेत्र पर मीणाओं का शासन था।
मंदिर का द्वार – चांदी में उकेरी गई शक्ति की चेतना
मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार चांदी की परत से मढ़ा हुआ है। इस द्वार पर नवदुर्गा – शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री – की मूर्तियाँ उकेरी गई हैं।
साथ ही, द्वार पर दस महाविद्याओं – काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, श्रीमातंगी और कमला देवी – की दिव्य आकृतियाँ भी अंकित हैं। यह मंदिर को न केवल शाक्त परंपरा से जोड़ता है, बल्कि उसे एक शक्तिपीठ की गरिमा भी प्रदान करता है।
मंदिर का आंगन और आंतरिक कला
मंदिर के आंगन में लाल पत्थर से बनी भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह में प्रवेश से पहले एक खिड़की के भीतर एक चांदी का नगाड़ा रखा हुआ है, जिसे प्रातः और संध्या आरती के समय बजाया जाता है। इसके संगीत से मंदिर परिसर में एक अद्वितीय आध्यात्मिक लय उत्पन्न होती है।
प्रवेश करते ही दाईं ओर कलाकार धीरेंद्र घोष द्वारा रचित महाकाली और महालक्ष्मी की सुंदर चित्रकारी दिखाई देती है। चित्रकला, संगीत और मूर्तिकला का ऐसा मेल मंदिर को एक जीवंत, सांस लेने वाले देवालय का रूप देता है।
वास्तुशैली और तांत्रिक प्रभाव
मंदिर के कुछ खंभों और स्थापत्य में बंगाली शैली की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। फर्श पर अष्टकोणीय टाइलों का प्रयोग किया गया है, जो इस बात का प्रतीक है कि यह स्थान तांत्रिक शक्तियों और अनुष्ठानों का भी केंद्र रहा है। मंदिर में कई स्थानों पर तांत्रिक यंत्र और प्रतीक देखे जा सकते हैं, जो इसकी रहस्यमयी ऊर्जा को महसूस कराते हैं।
एक मंदिर – आस्था, इतिहास और शक्ति का संगम
Shila devi temple Jaipur केवल एक पूजा स्थल नहीं, बल्कि एक ऐसा आध्यात्मिक केंद्र है जहाँ इतिहास, संस्कृति और दिव्यता एक साथ सांस लेते हैं। यहाँ की प्रतिमा न केवल शक्ति का प्रतीक है, बल्कि वह राजपूती गौरव, तांत्रिक परंपरा और मातृभक्ति का जीवंत स्वरूप भी है।
शिला देवी मंदिर, जयपुर के दर्शन समय
दिन | दर्शन समय (प्रातः) | दर्शन समय (सायं) |
सोमवार | सुबह 6:00 बजे – दोपहर 12:00 बजे | शाम 4:00 बजे – रात 8:00 बजे |
मंगलवार | सुबह 6:00 बजे – दोपहर 12:00 बजे | शाम 4:00 बजे – रात 8:00 बजे |
बुधवार | सुबह 6:00 बजे – दोपहर 12:00 बजे | शाम 4:00 बजे – रात 8:00 बजे |
गुरुवार | सुबह 6:00 बजे – दोपहर 12:00 बजे | शाम 4:00 बजे – रात 8:00 बजे |
शुक्रवार | सुबह 6:00 बजे – दोपहर 12:00 बजे | शाम 4:00 बजे – रात 8:00 बजे |
शनिवार | सुबह 6:00 बजे – दोपहर 12:00 बजे | शाम 4:00 बजे – रात 8:00 बजे |
रविवार | सुबह 6:00 बजे – दोपहर 12:00 बजे | शाम 4:00 बजे – रात 8:00 बजे |
यहां शिला देवी मंदिर, आमेर के समीप प्रमुख दर्शनीय स्थल
1. जयगढ़ किला (Jaigarh Fort):
आमेर किले की रक्षा के उद्देश्य से सन् 1726 में सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा निर्मित यह किला “विजय दुर्ग” के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह किला ‘चील का टीला’ नामक पहाड़ी पर स्थित है। और यहां से पूरे आमेर क्षेत्र का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। इसमें विश्व की सबसे बड़ी तोप ‘जयवाना’ भी देखी जा सकती है।
2. जगत शिरोमणि मंदिर (Jagat Shiromani Temple):
यह मंदिर मीरा बाई, श्रीकृष्ण और भगवान विष्णु को समर्पित है। इसे रानी कंकावती ने 1599 से 1608 ईस्वी के बीच बनवाया था, जो राजा मानसिंह की पहली पत्नी थीं। आमेर किले से मात्र 400 मीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर अपनी नक्काशी और स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध है।
3. नाहरगढ़ किला (Nahargarh Fort):
इस किले का मूल नाम ‘सुदर्शनगढ़’ था, जिसे बाद में बदलकर ‘नाहरगढ़’ कर दिया गया, जिसका अर्थ है “बाघों का बसेरा”। इसे 1734 में सवाई जय सिंह द्वितीय ने बनवाया था। बाद में सवाई राम सिंह और सवाई माधो सिंह ने इसमें महलों और विस्तार का कार्य करवाया। यह किला आमेर की सुरक्षा श्रृंखला का हिस्सा रहा है।
4. पन्ना मीणा का कुंड (Panna Meena ka Kund):
16वीं शताब्दी में निर्मित यह सुंदर बावड़ी कभी तैराकी और विश्राम स्थल के रूप में प्रयुक्त होती थी। इसकी सीढ़ियां और जल संग्रहण प्रणाली दर्शकों को आकर्षित करती है। आमेर किले से मात्र 600 मीटर की दूरी पर स्थित यह कुंड, अनोखी वास्तुकला और शांति प्रदान करने वाले वातावरण के कारण प्रसिद्ध है।
5. जल महल (Jal Mahal):
मान सागर झील के मध्य स्थित यह महल जय सिंह द्वितीय द्वारा 18वीं शताब्दी में बनवाया गया था। इसकी राजपूत और मुग़ल स्थापत्य कला का संगम अद्वितीय है। शाम के समय यहां की झील में पड़ती सूर्य की किरणें और झील के बीचों-बीच स्थित महल का दृश्य मन को मोह लेने वाला होता है। यह आमेर से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
शिला देवी मंदिर कैसे पहुँचें?
हवाई मार्ग से:
यदि आप हवाई यात्रा कर रहे हैं, तो सांगानेर एयरपोर्ट (जयपुर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा) मंदिर से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। एयरपोर्ट से टैक्सी या कैब के माध्यम से मंदिर तक आसानी से पहुँचा जा सकता है।
रेल मार्ग से:
नजदीकी रेलवे स्टेशन रामगंज मंडी है, जो मंदिर से केवल 2 किलोमीटर की दूरी पर है। स्टेशन से आप ऑटो, रिक्शा या टैक्सी द्वारा मंदिर तक पहुँच सकते हैं।
सड़क/बस मार्ग से:
अगर आप सड़क मार्ग से यात्रा कर रहे हैं, तो नजदीकी बस स्टैंड मंदिर से लगभग 5 किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ से नियमित टैक्सी, ऑटो और लोकल बस सेवाएं उपलब्ध हैं जो आपको मंदिर तक पहुँचा देती हैं।